भारत में बेटियों को लक्ष्मी समान दर्जा दिया जाता है। देवी की तरह पूजा जाता है। देश के प्रधानमंत्री बेटी बचाओं-बेटी पढाओं का नारा देते नज़र आते हैं। दुर्भाग्यवश सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम योजनाएं कागजों पर ही पढ़ने में अच्छी लगती है। इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर अमलीजामा पहनाना टेढ़ी खीर की तरह लगता है। महिला खिलाड़ियों के प्रति सरकार की उदासीनता के चलते कई प्रतिभावान खिलाड़ी काल के गर्भ में भूला दिए जाते हैं। वैसे तो इस देश में हुनर की कमी नहीं है। सही दिशा और दशा न होने के चलते इन खिलाड़ियों को वो मौक़ा नहीं मिल पाता जो अन्य खिलाड़ियों को आसानी से मिल जाता है।

Picture Source :- WordPress.com
महज दस साल की छोटी सी उम्र में ही सिर से पिता का साया उठ गया। मां पढ़ी-लिखी नहीं थीं। इन सब के बीच घर की ज़िम्मेदारी माँ के साथ उसके कंधो पर आ गयी। बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी से लेकर बड़ी बेटी की शादी तक, छोटी बेटी की पढ़ाई से लेकर बेटे को नौकरी दिलवाने तक का भार सिर माथे आ गया। उसकी माँ को समझ में नहीं आ रहा था कि घर कैसे चलेगा? इन सब के बावजूद वो विचलित नहीं हुई। उसे विश्वास था खुद पर ,खुद के खेल पर। यहाँ हम बात रहे हैं बॉक्सर जमुना बोरो की।
असम स्थित शोणितपुर जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा इस आदिवासी इलाके में एक छोटा सा गांव है बेलसिरि। इस गाँव के प्रतिशाली युवाओं को रोज़गार के नाम पर दिहाड़ी का काम भी बड़ी मुश्किल से ही मिल पाता है। गाँव में रहने वाले कई लोग सब्जी बेचकर अपना गुजर बसर करते हैं। आर्थिक बदहाली के बावजूद यहां के युवाओं में खेल का जज़्बा कम नहीं है।

Picture Source :- BBC.com
उन दिनों बॉक्सर मैरी कॉम का बोलबाला देश के कोने-कोने में था। उनकी वजह से महिला बॉक्सिंग सुर्ख़ियों में थी। जमुना भी बॉक्सर बनना चाहती थी। लेकिन उस पर तो वुशु गेम का बुखार चढ़ रहा था। घर की आर्थिक परिस्थिति चट्टान बनकर खड़ी थी। परिवार की माली हालत सुधारने के लिए जमुना की माँ ने घर चलाने के लिए सब्जी बेचने का फैसला किया। मां बेलसिरी गांव के रेलवे स्टेशन के बाहर सब्जियां बेचने लगीं। साथ में जमुना भी माँ का हाथ इस काम में बटाने लगी। वो स्कूल से आने के बाद माँ के साथ सब्ज़ी बेचती। इस तरह जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू हो गई।

Picture Source :- Magical Assam
अक्सर स्कूल से वापसी के समय वो खेल के मैदान के किनारे खड़ी होकर वुशु गेम देखने लगती। आप सोच में पड़ गए होंगे कि यह वुशु गेम क्या होता है। तो आपको बता दें, दरअसल वुशु जूडो-कराटे और टाइक्वांडो की तरह एक मार्शल आर्ट है। जमुना को इस खेल में रास आने लगी। उसे भी यह गेम खेलने की प्रबल इच्छा होने लगी। उन दिनों स्थानीय लोग महिला बॉक्सिंग से परिचित तो थे, लेकिन महिला वुशु खिलाड़ी की कहीं कोई चर्चा नहीं होती थी। इस बारे में जमुना कहती है कि “सभी वुशु खिलाड़ी मेरे गांव के थे। वो सब मेरे भाई जैसे थे। मैं उन्हैं भैया कहती थी। मेरा उत्साह देखकर ही उन्होंने मुझे अपने साथ खेलने का मौका दिया। उन दिनों गांव की कोई लड़की वुशु नहीं खेलती थी।”

Picture Source :- Magical Assam
कहते हैं वो लोग ही कुछ अलग कर सकते हैं जो परम्पराओं को तोड़ना जानते हैं। जमुना भी रूढ़िवादी और पुरुषप्रधान समाज की सोच को बदलना चाहती थी। उसने फैसला कर लिया था। जल्द ही गांव में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई कि एक लड़की वुशु सीख रही है। इस खेल में जामुन की माँ का पूरा सहारा मिला। माँ का साथ पाकर जमुना सातवें आसमान पर थी। लेकिन कुछ दिनों बाद ही जमुना को इस बात का एहसास होने लगा कि इस खेल में वो शोहरत और नाम नहीं है जो अन्य खेलों में होता है। उन्हें लगने लगा कि वो इस खेल के लिए नहीं बनी है।
जमुना को इस खेल में कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी। इस बीच उन्होंने मैरी कॉम के बारे में सुन रखा था। अब वो तो बॉक्सिंग सीखना चाहती थी। उसे मैरी कॉम की तरह नाम कमाना था। इस बारे में जब उन्होंने अपने कोच से बात किया तो तो उन्होंने भी जमुना को यही राय दी कि तुम्हें बॉक्सिंग सीखनी चाहिए। समस्या विकट थी, गांव में इसकी ट्रेनिंग की कोई सुविधा नहीं थी। लेकिन कोच को पूरा यकीन था कि अगर इसे सही ट्रेनिंग मिले, तो यह बेहतरीन बॉक्सर बन सकती है।
स्थानीय कोच बिना फीस के उन्हें ट्रेनिंग देने लगे। बकौल जमुना, “मैरी कॉम से प्रेरणा मिली। जब वो तीन बच्चों की मां होकर बॉक्सिंग कर सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं? वो मेरी रोल मॉडल हैं। मैं उनके जैसी बनना चाहती हूं।”
पदकों को जीतने का सिलसिला हुआ शुरू

Picture Source :- BBC.com
साल 2010 में जमुना पहली बार तमिलनाडु के इरोड में आयोजित सब जूनियर महिला राष्ट्रीय बॉक्सिंग चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतकर गांव लौटी। यह उनका पहला गोल्ड मेडल था। वो यही नहीं रुकी अगले साल कोयंबटूर में दूसरे सब जूनियर महिला राष्ट्रीय बॉक्सिंग चैंपियनशिप में भी उन्होंने गोल्ड मेडल जीतकर चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम किया। अब मानो सफलता उनके दरवाज़े पर दस्तक दे चुकी हो। साल 2013 जमुना के लिए बेहद खास रहा। इस साल उन्होंने सर्बिया में आयोजित इंटरनेशनल सब-जूनियर गल्र्स बॉक्सिंग टूर्नामेंट में स्वर्ण पदक जीतकर देश का मान बढ़ाया।
यही नहीं अगले साल यानी साल 2014 में रूस में बॉक्सिंग प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतकर वो चैंपियन बनी। साल 2015 में ताइपे में यूथ वल्र्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप में उन्होंने कांस्य पदक जीता। इस तरह साल दर साल पदक दर पदक जमुना की झोली में आते गए। अब उनका लक्ष्य 2020 में टोक्यो में होने वाले ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेना है। इसके लिए वो अभी से तैयार में जुट गयी है। इस बारे में जमुना कहती हैं, “प्रैक्टिस के दौरान मैं अक्सर लड़कों से मुकाबला करती हूं। खेल के समय मैं यह नहीं देखती कि सामने लड़का है या लड़की। मेरा लक्ष्य सामने वाले को हराना होता है। मेरा टारगेट ओलंपिक पदक जीतना है।

Picture Source :- en.wikipedia.org
अपनी जीत का श्रेय माँ को देते हुए जमुना कहती हैं कि “मां ने बहुत मेहनत की है। उनका पूरा जीवन एक तपस्या है। जब मैं मेडल जीतकर गांव लौटी, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। सच कहूं, तो उनके हौसले ने ही मुझे खिलाड़ी बनाया। मुझे मेरी माँ पर गर्व है। मां ने सब्जी बेचकर हम भाई-बहनों को पाला। दीदी की शादी की। वैसे सब्जी बेचना खराब काम तो नहीं है।” अब देखना है कि ज़मुना किस तरह इस मुश्किलात में अपने आप को संभाल पाती है। उम्मीद तो यही है कि आने वाले समय में वो देश के लिए मेडल जीतकर उन लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनेगी जो समस्याओं से डर कर सपनों को पूरा करने के पहले हार मान लेते हैं।