वैसे तो भारत वर्ष में एक से बढ़कर वीरों ने जन्म लिया है। आज भी भारत का इतिहास उनकी वीरता और कारनामों से सराबोर है। ऐसे ही एक शख्स थे जिसके आगे सारा जमाना झुकता था, जिनसे पूरी दुनिया के पहलवान डर के मारे थर-थर कांपते थे। उन्होंने पचास साल के पहलवानी के करियर में कभी हार नहीं मानी। जिस पत्थर को वो हंसते-हंसते उठाते थे आज उसे 25 लोग भी मिलकर नहीं उठा पाते। जिन्होंने हिंदुओं को बचाने के लिए अपने मुसलमान भाईयों से ही हाथा पाई कर ली थी। जिसने अपनी पूरी जिंदगी इंसानियत को बनाने में लगा दी। आज भी लोग उन्हें ग्रेट कहते हैं। इसलिए नहीं कि वो अपराजित थे। बल्कि इसलिए कि वो एक सच्चे इंसान थे। यहीं नहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की पत्नी कुलसूम नवाज़ उनकी पोती हैं।

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खाने में वो आधा किलोग्राम घी रोजाना पीते थे। नाश्ते में 4 लीटर बादाम दूध पीते फिर चार दर्जन अंडे और 2 किलो फल खाया करते थे। दोपहर के भोजन में वो तीन किलोग्राम चिकन या मीट के साथ 50 रोटियां खा जाते थे। इसके बाद वो भोजन को पचाने के लिए 2 लीटर फलों का रस पीया करते थे। शाम के समय जलपान के लिए वह पीने के लिए तीन लीटर दूध और वहीं चार दर्जन अंडे और 2 किलो फल खाया करते थे। रात के भोजन में तीन किलोग्राम चिकन के साथ एक किलोग्राम सूप और 50 चपाती खाया करते थे। इसके साथ वो हर रोज दो दर्जन केले भी खाते थे। दोपहर और रात के भोजन के साथ तक़रीबन 750 ग्राम मक्खन का इस्तेमाल करते थे। अपने शरीर को ठंडा करने के लिए दो लीटर ठंडाई पीते थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दिन में 5000 बैठक और 1000 से ज्यादा दंड लगाना उनकी दिनचर्या में शुमार था।
आप सोच रहे होंगे कौन वो बहादुर जिनकी चर्चा है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं। अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि यह जरुर कोई पहलवान होगा। जी हाँ, आपने सही सोचा। दुनिया उन्हें रुस्तमे हिंद के नाम से जानती हैं। रेसलिंग की दुनिया में उन्हें ‘द ग्रेट गामा’ के नाम से जाना जाता है। नाम गुलाम मोहम्मद जिन्हें द ग्रेट गामा या गामा पहलवान भी कहा जाता था। वो दुनिया के सबसे महान रेसलर में से एक थे। 22 मई, 1878 को अमृतसर में पैदा हुए पहलवान गामा का असली नाम ग़ुलाम मोहम्मद था। उनका जन्म पंजाब के अमृतसर में कश्मीरी परिवार में हुआ था। उनके पिता मोहम्मद अजीज बख्श भी एक जाने-माने पहलवान थे। पहलवानी उन्हें विरासत में मिली। पिता की मौत के बाद गामा को दतिया के महाराजा ने गोद लिया और उन्हें पहलवानी की ट्रेनिंग दी। वही उन्होंने पहलवानी के गुर सीखे। उनका कद महज 5 फिट 7 इंच था। उनकी यह सामान्य कद-काठी कभी उनके लक्ष्य के सामने कभी बाधा नहीं बनी। पहली बार उन्हें चर्चा मिली उस दंगल से जो जोधपुर के राजा ने 1890 में करवाया था। उस दंगल में 12 साल की उम्र में गामा ने एक के बाद एक 15 पहलवानों को धुल चटा दी थी। 24 साल की उम्र में उन्होंने 1,200 किलो वजन का पत्थर उठाकर पहलवानी की दुनिया में नया कीर्तिमान रच दिया था। सोचो 1,200 किलो वजन का पत्थर अकेले उठाना।
जब विश्व विजेता पहलवान गामा से डरकर भाग खड़ा हुआ

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इस चैंपियनशिप में पहलवान गामा के पहुंचने की भी कहानी काफी दिलचस्प है। दरअसल, लंदन में उन दिनों ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम की कुश्ती प्रतियोगिता हुआ करती थी। साल 1910 में गामा भी अपने भाई के साथ इस प्रतियोगिता में भाग लेने जा पहुंचे। लेकिन गामा का कद इस प्रतियोगिता के मानकों पर खरा नहीं उतर रहा था, जिसके चलते उन्हें प्रतियोगिता में भाग लेने से मना कर दिया। इस बात से नाराज़ गामा ने गुस्से में ऐलान कर दिया कि वो दुनिया के किसी भी पहलवान को हरा सकते हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ तो वो जीतने वाले पहलवान को इनाम देकर हिंदुस्तान लौट जायेंगे। गामा की इस चुनौती को अमेरिकी पहलवान बेंजामिन रोलर ने स्वीकार की।

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गामा ने उन्हें डेढ़ मिनट में ही पटखनी दे दी फिर दूसरे राउंड में 10 मिनट से भी कम समय के भीतर चारों खाने चित कर दिया। अगले दिन दुनिया भर से आये 12 पहलवानों को गामा ने चंद मिनटों में हराकर पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इससे थक-हार कर आयोजकों ने गामा को प्रतियोगिता में जाने की अनुमति दे दी। सितंबर 10, 1910 को हुई इस प्रतियोगिता में गामा के सामने पोलैंड के विश्व विजेता स्तानिस्लौस ज्बयिशको थे। गामा ने उन्हें एक मिनट में ही गिरा दिया और फिर अगले ढाई घंटे तक वो फ़र्श से चिपके रहे ताकि वो चित हो जाएं। यह मैच बराबरी पर खत्म हुआ। एक सप्ताह बाद फाइनल राउंड में ज्बयिशको, गामा से लड़ने आया ही नहीं तो गाम को विजेता घोषित कर दिया गया। इस पर गामा ने कहा था कि “मुझे लड़कर हारने में ज़्यादा ख़ुशी मिलती बजाय बिना लड़े जीतकर।”

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भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त गामा अपने परिवार के साथ पकिस्तान के लाहौर शहर में रहने चले गए थे। वहां वो हिंदू समुदाय के साथ रहते थे। बंटवारे के बाद जब वहां की स्थिति खराब हुई और सीमा पर तनाव पैदा हुआ, तो भी धार्मिक उन्माद बढ़ा। ऐसे में गामा ने हिंदुओं को बचाने के लिए उनके सामने ढाल बनकर खड़े हो गए। जिसके बाद किसी ने भी हिंदुओं पर हमला करने की हिम्मत नहीं की।
अपने पांच दशक के करियर में कभी ना हारने वाले गामा को बुढ़ापे में ग़ुरबत के दिन देखने पड़े थे। उनकी आर्थिक हालात को देखते हुए उनके खर्च के लिए कारोबारी जीडी बिड़ला उन्हें हर महीने 2 हजार रुपये भेजा करते थे। इस बात का खुलासा होने पर पकिस्तान की सरकार ने भी उन्हें पेंशन देना शुरू किया।
बड़े-बड़े पहलवानों को रिंग में मात देने वाले पहलवान गामा दिल की बीमारी से जीत नहीं सके। उन्होंने अपने 82वें जन्मदिन के ठीक एक दिन बाद 23 मई, 1960 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। ऐसे थे हमारे देश के लाला द ग्रेट गामा पहलवान। उनकी कहानी मौजूदा दौर के लोगों के लिए प्रेरणा का काम कर सकती है।