समय को बड़ा बलवान माना जाता है। अगर समय का पहिया पटरी पर सवार हो तो उसकी रफ़्तार के आगे बड़ी-से-बड़ी मुश्किलें आसानी से हल हो जाती है। फर्श से अर्श तक पहुँचाने वालें काल चक्र की गति जब रूकती है, तब इंसान को राजा से रंक बनने में सिर्फ पल भर का समय लगता है। कुछ यही हाल देश के उन खिलाड़ियों का है जो कभी अपनी खेल प्रतिभा का जौहर दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। अपने हुनर के बलबूते खेलप्रेमियों के आँखों का तारा बनने वाले खिलाड़ी कभी सपने में भी नहीं सोचे होंगे कि किस्मत की लकीरों के गर्दिश में जाते ही दुनिया उन्हें इस तरह भूला देगी कि उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं होगा।
इसी तरह वो भी कभी देश के लिए खिताब जीतकर अखबारों की सुर्खियाँ बना करता था। आज अखबार तो है लेकिन उनका नाम नदारद है। घर की माली हालत के आगे हारकर वो टूट गया है। वो साल 1998 की भारतीय दिव्यांग (नेत्रहीन) टीम का हीरो हुआ करता था। उनके नाम सबसे अधिक विकेट लेने का रिकॉर्ड दर्ज है। वो नाम शायद आप के लिए अनसुना-सा हो लेकिन उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन के हाथों ‘मैन ऑफ द सीरीज’ के खिताब से नवाज़ा जा चुका है।

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यहाँ हम बात कर रहें हैं गुजरात स्थित अरावल्ली जिले में रहने वाले नेत्रहीन क्रिकेटर भलाजी डामोर की। वो साल 1998 में भारत में आयोजित 7 देशों के ब्लाइंड वर्ल्ड कप में भारतीय टीम के हीरो थे। उन्होंने उस वर्ल्ड कप में सर्वाधिक विकेट लेने का विश्व रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज किया था। लेकिन आज वो आर्थिक तंगी के चलते सुदूर गाँव में भैंस चराने पर मजबूर है। पता नहीं क्या कारण रहे हो, हो सकता है सरकार की अनदेखी हो या कुछ और। तकरीबन 1500 की आबादी वाले इस छोटे से गांव पीपराणा में रहने वाले 38 वर्षीय भलाजी आज गांव में भैंसों को चराकर अपनी जीविका चला रहे हैं। महज तीन हजार महीने की आमदनी पर अपनी जीविका चलाने वाले भलाजी की पत्नी अनु खेतों में काम कर घर की आर्थिक हालत को सुधारने में अथक सहयोग करती तो हैं, लेकिन अपर्याप्त आय के कारण घर की स्थिति जस की तस बनी हुई है।

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बात करें भलाजी की तो वो बचपन से ही दृष्टिहीन थे। घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। लेकिन खेल के प्रति उनके जुनून और जज़्बे ने सफ़लता को उनकी दहलीज़ पर नतमस्तक होने के लिए मजबूर कर दिया। क्रिकेट के प्रति उनके जुझारूपन ने उन्हें 1998 के ब्लाइंड वर्ल्ड कप का हीरो बना दिया। वर्ल्ड कप के सभी मैचों में उनके उम्दा प्रदर्शन ने उस दौर के अखबारों में सुर्खियाँ बनाने में सफलता हासिल की थी। भलाजी की इस काबिलियत को देखते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने अपने हाथों से ‘मैन ऑफ द सीरीज’ का खिताब देते हुए उनकी पीठ थपथपाई थी। लेकिन भलाजी की प्रतिभा को जल्द ही भूला दिया गया। ब्लाइंड क्रिकेट में उनके इस योगदान को कमतर आंका गया। आज हालत यह है कि आर्थिक तंगी के चलते मज़बूरी में उन्हें भैंसे चरानी पड़ रही है।

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अपनी दुर्दशा पर वो कहतें हैं कि “अगर सरकार की तरफ से कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल जाती तो परिवार की जीविका सुचारू रूप से चला पाता। कहने के लिए तो मेरे पास बहुत से पदकऔर सर्टिफिकेट्स हैं, लेकिन मेरे किसी काम के नहीं। भला मेडल से कही पेट भरता है।” जानकरी के मुताबिक उनकी ज़िन्दगी में एक समय तो ऐसा भी आया था कि जब पेट भरने के लिए उन्हें घर के बचे गहने तक गिरवी रखने पड़ गए थे।

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कहने के लिए तो सरकार खेल के नाम पर कई वादें करती तो है लेकिन बहुत सारे खेल और खिलाड़ी अब भी ऐसे हैं, जिन्हें तवज्जो नहीं दी जाती। कुछ हद तक इन्हें मौका मिलता तो है, लेकिन समय के साथ-साथ उनके योगदान को भी भूला दिया जाता है। जिस तरह ढलते सूरज को देख लोग अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लेते है ठीक उसी तरह बुरे वक्त में उन्हें भी नज़रअंदाज कर दिया जाता है।

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वैसे तो कई खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में देश का नाम रोशन किया है। लेकिन कुछ समय बाद ही वो सिर्फ इतिहास बनकर कहीं दबे पड़े अखबारों के धूल खा रहे पन्नो के नीचें गुमनाम हो गये हैं। आज इन खिलाड़ियों की हालत यह है कि दो वक़्त की रोटी के लिए वो जद्दोजहद रहे हैं। क्रिकेट में अपना जौहर दिखाने वाले भलाजी को अगर सरकार की तरफ से जरा सी मदद मिली होती तो आज वो अच्छे मुकाम पर होते। लेकिन, सरकार की अनदेखी ने उन्हें हताश कर दिया है। आलम यह है कि अब वो खराब आर्थिक स्थिति से गुजर रहे हैं।
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