उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 250 किमी दूर इलाहाबाद और बनारस के मध्य स्थित है भदोही जिला, जिसे संत रविदास नगर के नाम से भी जाता है। भदोही को कालीन नगरी कहा जाता है। यहां के कालीन पूरी दुनिया में एक्सपोर्ट्स होते हैं और देश में सबसे ज्यादा कालीन का निर्माण भदोही में ही होता है। लेकिन कालीन नगरी आजकल एक युवा के संघर्ष की कहानी के कारण चर्चा में है।
भदोही खास से लगभग 20 किमी की दूरी पर स्थित ब्लॉक सुरियावां में आजकल हर चाय-पान की दुकान पर यशस्वी जायसवाल की ही बातें होती हैं। लोग विश्वास नहीं कर पा रहे कि गरीबी में पला-बढ़ा एक लड़का छोटे शहर से निकलकर इंडियन क्रिकेट टीम तक पहुंच गया।
सुरियावां बाजार की सड़कें बहुत सकरी हैं। भीड़-भाड़ वाले इस बाजार के कोने में एक पेंट की दुकान है। और उसके ठीक सामने रामलीला मैदान है। दुकान की एक दीवार पर एक लड़के की बड़ी सी पोस्टर लगी है। नीचे नाम लिखा है यशस्वी जायसवाल। जब मैं दुकान पर पहुंचा तो वहां कोई नहीं था। बगल की पान की दुकान पर पूछा तो दुकान के मालिक को बुलाने किसी को भेजा गया। लगभग 10 मिनट बाद दुकान के मालिक और यशस्वी जायसवाल के पिता भूपेंद्र जायसवाल जब दुकान पर आते हैं तो उनके चेहरे पर जीत की मुस्कान साफ दिख रही थी। ये जीत एक संघर्ष की है, ये जीत त्याग की है।
यशस्वी जायसवाल उस समय चर्चा में आये जब महाराष्ट्र की तरफ से उनका चयन श्रीलंका जाने वाली इंडिया की अंडर-19 टीम में हुआ। यशस्वी के साथ-साथ उनके साथी खिलाड़ी अर्जुन तेंदुलकर को भी टीम में चुना गया है। यशस्वी मिडिल ऑर्डर बल्लेबाज और राइट हैण्ड लेग स्पिनर हैं। उनके चयन की खबर जैसे ही उनके गांव पहुंची, उनके घर बधाई देने वालों का तांता लग गया।
यशस्वी के पिता भूपेंद्र ने स्पोर्ट्सवाला को बताया, “उस दिन शाम को यशस्वी ने ही फ़ोन करके हमें बताया कि उसका चयन इंडिया अंडर-19 टीम में बतौर ऑलराउंडर हुआ है। ये सुनते ही मेरी आंखें भर आईं।” भारी गले से भूपेंद्र आगे बताते हैं, “मैं भी क्रिकेटर था। भदोही की तरफ से तेज गेंदबाजी करता था। लेकिन गरीबी के कारण मैं आगे नहीं बढ़ पाया। मैंने ठान लिया था कि अपने बेटे को जरूर क्रिकेटर बनाऊंगा। और मैंने यशस्वी में वो जूनून देखा। 4 साल की उम्र में वो मेरी गेंद को खेलना लगा था। लेकिन लोग मुझे ताना मारते थे कि तुम्हारे इतना तुम्हारा बेटा भी खेलेगा।”
यशस्वी जब 10 साल के थे तब उनके पिता उन्हें मुंबई लेकर गए। कारण कि उन्हें अच्छे क्रिकेट एकेडमी की तलाश थी। मुंबई के आजाद मैदान में यशस्वी को रहने की जगह नहीं मिली, क्योंकि वहां के कैंप में खाना बनाना पड़ता था। इस वजह से यशस्वी को उनके पिता वापस गांव ले आए।
इस बारे में भूपेंद्र कहते हैं, “जब वे यशस्वी को लेकर पहुंचे तो उन्हें वहां पप्पू सर मिले। उन्होंने राय दी और मैं योगी (यशस्वी का घर का नाम) को लेकर वापस आ गया और उसे एक साल तक खाना बनाना सिखाया। एक साल बाद जब उसने खाना बनाना सीख लिया तो उसे फिर आजाद मैदान में लेकर पहुंचा जहां मुस्लिम यूनाइटेड क्लब के टेंट में रहने की जगह मिल गई। टेंट में यशस्वी ने तीन साल तक रोटी बनाई।”

और वहीं से यशस्वी ने क्रिकेट में अपनी चमक बिखेरनी शुरू कर दी। अंजुमन इस्लाम उर्दू हाई स्कूल में एडमिशन के बाद स्कूल की टीम से खेलते हुए उन्होंने जब एक पारी में 319 रन बनाने के आलावा 99 रन देकर 13 विकेट झटके तब क्रिकेट के एक नये स्टार का उदय हो रहा था। गिल्स शील्ड टूर्नामेंट में यशस्वी का ये प्रदर्शन लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज है। 14 साल की उम्र में स्कूल क्रिकेट में इससे बेहतर प्रदर्शन आज तक किसी का नहीं है।
यशस्वी मुंबई अपने भाई के साथ आये थे। लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के कारण उनके भाई को गांव लौटना पड़ा। यशस्वी को भी पैसे की बहुत कमी खलती थी। यशस्वी के पिता कहते हैं, “मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं यशस्वी की जरूरतें पूरी कर सकूं। इसके बाद यशस्वी पानी-पूरी और फल की दुकान पर काम करने लगा। मैं हर महीने 1500 से 2000 रुपए तक भेज पाता था। लेकिन इसी बीच मेरे भगवान, “क्रिकेट कोच ज्वाला सिंह की नजर यशस्वी पर पड़ी और उन्होंने उसे मुझसे मांग लिया।” ज्वाला सिंह खुद यूपी से मुंबई आए थे। उन्हें यशस्वी में अपना बचपन दिखने लगा था।
यशस्वी अब कदमवाड़ी की छोटी सी चॉल में रहते हैं। टेंट में सर्दी के मौसम में तो उसमें रहना फिर भी थोड़ा आसान था, मगर मुंबई की गर्मी में टेंट में सोना, किसी चुनौती से कम नहीं था। ऐसे में टेंट की भीतर इतनी उमस और गर्मी होती थी कि कई बार रात में वो टेंट से बाहर मैदान पर सो जाते। मगर एक बार बाहर सोने के दौरान एक कीड़े ने आंख के पास काट लिया था। जिससें आंखें सूज गई थी। इसके बाद उन्होंने बाहर सोना छोड़ दिया। यशस्वी के पिता बताते हैं, “जब उसे कीड़े ने काट लिया तो मैं और उसकी मां रात भर रीते रहे। फिर मुम्बादेवी के पास मेरे दोस्त ने मैदान में जाकर यशस्वी का इलाज करवाया।”
मुंबई क्रिकेट क्लब और ज्वाला स्पोर्ट्स फाउंडेशन के संचालक और यशस्वी के कोच ज्वाला सिंह कहते हैं, “जब वो 12 साल का था, तब मैंने उसे ए डिवीजन के गेंदबाजों को बड़ी आसानी से खेलते देखा। उसमें मुझे अपना अक्स दिखा, क्योंकि मैं भी जब यूपी से मुंबई आया था, तब मेरे पास भी रहने को घर नहीं था। मेरा कोई गॉडफादर नहीं था। मगर यशस्वी में जबरस्त टैलेंट है। पिछले पांच साल में वो 49 शतक जमा चुका है और और कई मैच अपनी लेग स्पिन के बूते जिता भी चुका है। वो बाएं हाथ का शानदार बल्लेबाज होने के साथ-साथ नियमित लेग स्पिनर भी है। यशस्वी बहुत मेहनती है और उसे आगे बढ़ने के लिए और ज्यादा मेहनत करनी होगी। यहां तक पहुंचने के बाद बहुत से खिलाड़ी मेहनत कम कर देते हैं, ये नुकसानदायक साबित होता है।”

यशस्वी बचपन में अपने घर के पीछे खेला करते थे। वहां आज भी प्लास्टर किया हुआ पिच और फ्लड लाइट मौजूद है। इसके आलावा सुरियावां में ही मेढ़ी नाम का एक मैदान है जहां यशस्वी अपने से बड़ों बच्चों के साथ खेला करते थे। वहां के कोच सुजीत कुमार कहते हैं, “यशस्वी गजब का मेहनती था। जब सभी बच्चे खेलकर वापस लौट जाते थे तब भी वो खेला करता था। दिनभर मैदान में बिताता था। यशस्वी के चयन के बाद यहां खेलने वाले अन्य बच्चों में उम्मीद की किरण जगी है। अब यशस्वी जब भी यहां आता है तो बच्चों को कोचिंग देना नहीं भूलता।”