दुनिया भर के देशों में फुटबॉल का खुमार है। फुटबॉल का नाम सुनते ही आज की युवा पीढ़ी को भारतीय फुटबॉल टीम के सफल कप्तान बाइचुंग भूटिया का नाम जेहन में सबसे पहले आता है। लेकिन हम आपको एक ऐसे फुटबॉलर के बारे में बताने जा रहे हैं जो पेशे से थे तो डॉक्टर लेकिन उनके रग-रग में बसा था फुटबॉल। जिनका नाम भारतीय फुटबॉल खेल के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है जिन्हें नागालैंड में वीआईपी कल्चर को खत्म करने का पूरा श्रेय दिया जाता है। हो सकता हैं आप में से बहुत कम लोग हो जो इनके बारे में जानते हो या इससे पहले कभी इनका नाम भी सुना हो। तो हम बात कर रहे हैं भारतीय फुटबॉल टीम के पहले कप्तान डॉ.तालिमेरन आओ की। तालिमेरन का अर्थ होता है बहुत ही ताकतवर। आपको बता दें, आओ आजाद भारत के फुटबॉल टीम के पहले कप्तान थे।
नंगे पांव खेलते थे फुटबॉल
आपको जानकार हैरानी होगी कि तालिमेरेन नंगे पांव खेला करते थे। उस दौर में बहुत से फुटबॉलर नंगे पांव खेलते थे। कहते हैं कि आओ कपड़े के चिथड़ों से बनी बॉल के साथ फुटबॉल खेला करते थे। एक ब्रिटिश पत्रकार ने तालिमेरेन से पूछा था कि उनकी टीम नंगे पांव क्यों खेलती है, तो जवाब मिला – खेल का नाम फुटबॉल है, बूटबॉल नहीं। आपको बता दें तालिमेरेन आओ का जन्म उस वक्त के असम में स्थित नागा हिल्स जिले के चांगकी गांव में हुआ था। आज यह जगह नागालैंड के मोकोकचंग जिले में आती है। जन्म के तीन साल बाद आओ का परिवार मोकोकचंग शहर के पास, इंपपुर मिशन कंपाउंड में शिफ्ट हो गया। आओ 12 बहन-भाइयों में 4 नंबर की संतान थे। आओ की जनजाति एओएस नागालैंड के 16 जनजातियों में से एक हैं। कहा जाता है कि आओ घर के पास एक ऐसा इलाका था जहां स्थानीय लड़के रेत पर एक गेंद को लात मारकर खेलते थे। बस यही से पहली बार आओ को फुटबॉल के खेल में दिलचस्पी हुई। 5 फीट 10 इंच लम्बे आओ का शरीर एक सफल फुटबॉलर के लिए परफेक्ट था।
आजाद भारत की फुटबॉल टीम का किया प्रतिनिधित्व

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आओ के खेल के प्रति रूचि को देखते हुए भारतीय राष्ट्रीय टीम में शामिल किया गया। उनके अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें भारतीय फुटबॉल टीम का कप्तान चुना गया। महज एक साल पहले आजाद हुए देश की फुटबॉल टीम का नेतृत्व करने का सौभाग्य आओ को प्राप्त हुआ। कप्तान बनने के बाद उन्होंने 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय टीम का नेतृत्व किया था। आओ ने सैलेन मन्ना और ताज मोहम्मद के साथ लंदन ओलिंपिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। आपको बता दें ओलंपिक में भारत को बर्मा के खिलाफ वॉकओवर मिला था। लेकिन फ्रांस से 1-2 से हार गए थे। यहां भारत ने दो पेनल्टी मिस की थीं। मिड फील्ड और डिफेंस में खेलने वाले आओ ने मोहन बागान का नौ सीजन तक प्रतिनिधित्व किया था।
डॉक्टर बनने के लिए छोड़ दिया था फुटबॉल करियर
आपको जानकार हैरानी होगी कि फुटबॉल से बेहद लगाव होने के बावजूद अपने पिता से किया वादा निभाने के लिए आओ ने डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए फुटबॉल को छोड़ दिया था। आओ के पिता की मौत टाइफाइड से हुई थी। 1942 में आओ ने कोलकाता के कारमिचेल मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया। अपने पिता से किया वादा बखूबी निभाया और डॉक्टर अपने शहर कोहिमा के सिविल हॉस्पिटल में असिस्टेंट सिविल सर्जन बने। 1978 में वे रिटायर हो गए। 1998 में 80 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। तालिमेरेन आओ गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज आ गए, जहां अब उनके नाम पर एक स्टेडियम है। कहा तो यह भी जाता है कि दुनिया के बड़े फुटबॉल क्लब से उन्हें ऑफर था। लेकिन आओ भारत नहीं छोड़ना चाहते थे।