धरती का जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर की हालत पिछ्ले कई दशकों से तनावपूर्ण चल रहीं हैं। कर्फ़्यू ,गोलीबारी और पत्थरबाजी से कश्मीर के लोग जूझ रहें हैं। इन हालातों में कोई कुछ अलग करने की भी सोचें, तो उसे रूढ़िवादी परम्पराओं की बेड़िया पहना दी जाती है। ऐसे में 22 साल की एक कश्मीरी लड़की अपने सपने लिए सामने आती है, जो इन सब से परे अपनी ही धुन में फुटबॉल की दीवानगी को समेटे हुए फुटबॉल खेला करती हैं। फुटबॉल के कपड़े पहनकर खेलना रूढ़िवादियों को रास नहीं आता जिसके चलते उन्हें कई बार गंभीर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
इतनी आसान नहीं थी मंज़िल

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विरोधियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा, लेकिन नादिया निगहत इन सब को अनदेखा करते हुए फुटबॉल खेला करती रही। हालाँकि कश्मीर के इन हालातों में ऐसा करना इतना आसान नहीं था। कहते हैं आपके अंदर जुनून हो तो रास्ते स्वयं अपनी मंज़िलें ढूंढ लेते हैं। सभी समस्याओं का सामना करते हुए निगहत आज कश्मीर की आवाज़ बन चुकी हैं। कश्मीर की पहली महिला फुटबॉलर कोच के रूप में पहचान बनाने वाली नादिया मशहूर फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो और अर्जेंटीना के लियोनल मेसी की बहुत बड़ी फैन हैं।
कश्मीर की पहली महिला फुटबॉलर कोच की कहानी

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स्कूली दिनों से ही उन्हें फुटबॉल खेलने में गहरी रूचि थी। महज 10 साल की उम्र में अमर सिंह कॉलेज अकादमी में खेल के हुनर सीखने गईं, 40 से 45 लड़कों के बीच अकेले बेख़ौफ़ होकर फुटबॉल खेला करती। बकौल नादिया , ‘मेरे परिवार और मुझे फुटबॉल यूनिफॉर्म में लड़कों के साथ खेलने को लेकर काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। शुरुआत में मेरा परिवार इसके खिलाफ था लेकिन बाद में मेरे पिता ने मेरा समर्थन किया। इसके बाद पूरा परिवार मेरे साथ आ गया। जब वह थोड़ी बड़ी हुईं तो जम्मू-कश्मीर फुटबॉल एसोसिएशन ने भी उनका समर्थन किया।
कुछ कर गुजरने की चाह ने नादिया के सपनों को उड़ान दी

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कुछ कर गुजरने की चाह ने नादिया के सपनों को उड़ान दी। एक साक्षात्कार में वह कश्मीर घाटी के हालातों पर कह्ती है। “जब घाटी में कर्फ़्यू लगता तब मैं बहुत निराश होती, क्योंकि कर्फ़्यू लगने से घर के बाहर निकलने नहीं दिया जाता था। इस दौरान अपने घर में ही प्रैक्टिस करती और जब कर्फ़्यू हटता तो ख़ुशी के मारे झूम उठती, फुटबॉल लेकर सीधे खेल के मैदान में होती थी।” हालाँकि उनके लिए पहली महिला फुटबॉल कोच बनना कोई आसान काम नहीं था। जम्मू कश्मीर में किसी महिला के लिए ऐसा कर पाना असंभव था।
महाराष्ट्र के ठाणे में एक स्कूल में सिखाती हैं फुटबॉल

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वहां के लोगों के नजरिये को बदलना था, उन्हें यह समझाना था कि लड़कियां किसी भी फील्ड में आगे बढ़ सकती हैं। उन्हें ये समझाना था कि लड़कियां लड़कों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं। डगर काफी मुश्किल थी लेकिन असंभव कुछ भी ना था। वह अपने हुनर और लगन के चलते एक नई पहचान बनाने में कामयाब रही हैं। फ़िलहाल नादिया महाराष्ट्र के ठाणे में एक स्कूल में फुटबॉल सिखाती हैं। वह अभिभावकों से अपनी लड़कियों को फुटबॉल सिखाने के लिए कहती हैं। उसका मानना है कि माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चों को उसी क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करें जिसमें बच्चों की गहरी रुचि हो।