आज भले ही हम इक्कीसवीं सदी के दौर में जी रहे हैंलेकिन आज भी भारतीय समाज में महिलाएं जब भी कुछ करने का सोचती है तो उनके कदम को कुछ न कुछ कहकर रोक दिए जाते हैं। कुछ नहीं तो उन्हें सामाजिक बंदिशों का डर दिखाया जाता है कि चार लोग जानेंगे तो क्या कहेंगे ? अगर इस पर भी बात न बनी तो धार्मिक परम्पराओं का डर दिखाकर उन्हें कुछ भी करने से रोका जाता है। इस बात से ये साबित होता है कि हमारा समाज महिलाओं के प्रति कितनी संकुचित सोच रखता है।
ऐसे में महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक बंधनों को लांघ पाना काफ़ी मुश्किल होता है। काबिले तारीफ़ है वो महिलाएं जो रुढ़िवादी परंपराओं को लांघकर अपने मन की करती हैं और समाज के लिए आशा की किरण बनकर प्रज्वल्लित होती हैं। इस हालात में किसी मुस्लिम महिला का फुटबॉल कोच बनना और अपने ही जैसी लड़कियों को ट्रेनिंग देना किसी सपने के पूरे हो जाने जैसा है।
आज हम आपको एक ऐसी दिलेर महिला से परिचय करवाएंगे जो ‘लेडी बाइचुंग भूटिया’ के नाम से भी जानी जाती हैं। जिसने रूढ़िवादी परिवार से आने वाली लड़कियों को फुटबॉल सिखाने का फैसला किया। हम बात कर रहें हैं चेन्नई की 35 वर्षीय तमीमुन्निसा जब्बार की जो लड़कियों को हिजाब और फुल पैंट्स में फुटबॉल सिखाती हैं। उन्हें प्यार से लोग तमीम भी बुलाते हैं।
कब चढ़ा फुटबॉल का खुमार ?

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चेन्नई के चेंगलपेट में पढ़ाई के दौरान साल 1990 में पहली बार उनका परिचय फुटबॉल से हुआ था। शुरुआत में परिवार की नाराज़गी का सामना करना पड़ा लेकिन बेटी की लगन के सामने घरवालों ने टोकना मुनसिफ़ ही नहीं समझा। महज दो सालों के भीतर ही तमीम ने स्टेट लेवल मैच खेला और कांचीपुरम में मैच भी जितवाया। उस दौर में तमीम ने कई स्टेट लेवल के मैच खेलें और 1999 में ऊटी में हुए एक मैच में उन्होंने ऐसा प्रदर्शन किया कि उन्हें अखबारों ने ‘लेडी बाइचुंग भूटिया’ का उपाधि दे दी।
अपनी इस उपलब्धि पर तमीम कहती हैं, “अगर मेरे कोच ने मेरे घरवालों को नहीं समझाया होता तो मैं दसवीं पास करने के बाद घर बैठ जाती और 18 साल पूरा होने पर मेरी शादी हो जाती।”

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उस दौर के अख़बारों की सुर्खियाँ बन चुकी तमीम की उपलब्धि को देख पिता की आँखों में आँसू झलक उठे। खेल के प्रति बेटी की निष्ठा से प्रभावित होकर उन्होंने बेटी को कोच बन अन्य लड़कियों के भविष्य को सवारने के लिए प्रेरित किया। पिता से प्रेरणा लेकर ही तमीम चेन्नई में मुस्लिम महिला एसोसिएशन स्कूल की टीम को ट्रेनिंग देने लगी। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक तमीम मुस्लिम महिला एसोसिएशन स्कूल की पीटी टीचर भी हैं।
तमीम फुटबॉल सीखने वाली लड़कियों का खासा ध्यान भी रखती हैं। वो उन्हें प्रैक्टिस के बाद खुद घर छोड़कर आती हैं। वह कहती हैं, “अधिकतर परिवार लड़कियों के स्पोर्ट्स में हिस्सा लेने पर सहमत नहीं होते हैं इसलिए मुझे इन लड़कियों को हिजाब पहनाना पड़ता है। इससे कम से कम वो खेल में हिस्सा तो ले पाती हैं।” हिजाब और फुल पैंट्स में फुटबॉल खेलने को लेकर तमीम कहती हैं कि “इससे लड़कियों को फुटबॉल खेलने में किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता।”

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तमीम के स्कूल में पढ़ने वाली स्मिता निहार और शिरीन जमेखा रोज प्रैक्टिस करने के लिए फुटबॉल मैदान पर आती हैं। उनकी सारी पॉकेट मनी स्कूल से फुटबॉल मैदान तक प्रैक्टिस करने के लिए आने में ही खर्च हो जाती है। वो दोनों कहती हैं, “हमारे लिए तमीम मैम सिर्फ एक मेंटर नहीं हैं, वो हमारी दोस्त की तरह हैं जो हमें अच्छी तरह समझती हैं।“ तमीम इन लड़कियों के खानपान का भी पूरा ध्यान रखती हैं। इसके साथ ही वो इनके स्किल्स पर खासा ध्यान देती हैं।
उनकी इस टीम ने पिछले साल कराइकुडी में आयोजित राज्य स्तरीय टूर्नामेंट में प्रवेश किया और दस अन्य शहर की टीमों से सुपर लीग में खेलने के लिए योग्यता हासिल की। एमडब्ल्यूए टीम ने स्कूल स्तर से लेकर जोनल, जिला और विभागीय मैचों में भाग लिया है। तमीम अब इन लड़कियों को आगे खेलते देखना चाहती हैं। वो चाहती हैं कि ये लड़कियां देश के लिए खेलें।

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अगर उस वक़्त तमीम सामाजिक बंधनों की दहलीज को नहीं लांघी होती हो आज हम यहाँ उनकी उपलब्धियों के कसीदें नहीं पढ़ रहे होतें। अगर तमीम ने उस वक़्त ये सोच लिया होता कि लोग क्या कहेंगे तो आज वो किसी अनजान घर की चार दीवारी में सवा सौ करोड़ भारतीयों के बीच गुमनाम हो गयी होती। उनकी इस उपलब्धी के लिए मशहूर शायर निदा फज़ली साहब की चंद लाइने याद आती हैं कि
इंसान में हैवान, यहां भी हैं वहां भी।
अल्लाह निगहबान, यहां भी है वहां भी।
खूंखार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान, यहां भी हैं वहां भी।
रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान, यहां भी हैं वहां भी।
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में
इंसान परेशान, यहां भी हैं वहां भी।
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