साल 1999 का क्रिकेट विश्व कप का मैच तो आपको याद ही होगा न। इस विश्वकप के दूसरे मैच के दौरान मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को पिता रमेश तेंदुलकर के देहांत की खबर मिली। पिता के देहांत के बाद सचिन भारत वापस आकर अपने पिताजी का अंतिम संस्कार किया और दोबारा इंग्लैंड जाकर केन्या के खिलाफ 140 रनों की नाबाद पारी खेली और इस पारी को अपने पिता को समर्पित किया। ऐसा ही एक वाकया मौजूदा दौर के भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली के साथ भी हुआ था। साल 2006 में कर्नाटक के खिलाफ रणजी मैच खेल रहे विराट के पिता प्रेम कोहली की मृत्यु का दुखद समाचार उन्हें मिला।

Picture Source :- Facebook/Krishan B Pathak
इस विकट परिस्थिति में विराट ने अपने पिता के अंतिम संस्कार में ना जाकर अपनी टीम को जीताना महत्वपूर्ण समझा और 90 रनों की पारी की बदौलत उस मैच को हारने से बचा लिया। दोनों कहानियों को सुनकर अब तक तो आपको यह समझ में आ ही गया होगा कि सिर पर से पिता का साया उठना बेहद दर्दनाक होता है। इस दर्दनाक परिस्थित में इंसान टूट जाता है। वो विरले ही होते हैं जो अपने खेल के जुनून और ज़ज्बे के आगे पहाड़ सी दिखने वाली परेशानी को भी तिनके सामान समझते हैं। आशा है आप इन दोनों घटनाओं से बखूबी वाकिफ़ होंगे।

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लेकिन क्या आपने कृष्ण पाठक के पिता के बारे में सुना है ? शायद नहीं ? या हो सकता है आपने सुना हो। तो हम आपको बता दें विराट की कहानी से मेलखाती कृष्ण की दास्ताँ भी कुछ इसी तरह थी। 12 साल की उम्र में सिर से माँ का आँचल छूटने के बाद वो बुनियादी जरूरतों के आभाव और गरीबी से जूझते हुए कठिन परिस्थितियों का सामना करते रहे। कृष्ण हॉकी खेलते रहे। इस दौरान उनकी खेल प्रतिभा निखरती गई और उनका चयन भारतीय जूनियर हॉकी टीम में हुआ। खुशी के मारे झूमते हुए वो अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट खेलने इंग्लैंड जा रहे थे कि तभी उन्हें उनके पिता के दुखद निधन की खबर मिली। इस मुश्किल हालात में भी वो जरा भी नहीं हिचके।
बेटर इंडिया में छपी खबर के मुताबिक कृष्ण ने कहा कि “मेरी ज़िन्दगी हमेशा से अनिश्चित ही रही है। अब मैं एक अनाथ हूँ और मेरे लिए घर पर इंतज़ार करने वाला कोई नहीं है। मुझे नहीं पता कि ऐसी कोई जगह है मेरे लिए जिसे मैं घर कह सकूं। मैंने जीवन में इतनी कठिनाइयों का सामना किया है कि यदि हॉकी नहीं होती तो शायद मैं नशे का शिकार होता।”

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इस दौरान वो अपने खेल पर ध्यान केन्द्रित करते रहे मानो उन्हें कुछ हुआ ही नहीं। नतीजतन छह महीने बाद भारतीय हॉकी टीम ने जीत हासिल की। निश्चित तौर पर इस जीत में टीम के सभी खिलाड़ियों का योगदान रहा हो लेकिन कृष्ण का बहुमूल्य योगदान कैसे भुलाया जा सकता हैं। 20 साल की उम्र में पिता का साथ छूटने के बाद भी कृष्ण अपना खेल खेलते रहे हैं और टीम इंडिया की जीत में एक नया अध्याय लिखने में वो कामयाब हो सके। यह संभव हो ही सका क्योंकि उनके जैसे खिलाड़ियों की बदौलत जिन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में दुनिया के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।

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खैर पिता की मौत की खबर किसी के लिए भी असहनीय हो सकती है। इंसान की कामयाबी के पीछे उसके लगन और परिश्रम का बहुत बड़ा योगदान होता है। हमे ऊपर की दोनों घटनाएँ याद तो हैं लेकिन यह तीसरी घटना शायद हमारे जेहन में कहीं गुम हो गई है। शायद हमारी इसी यादाश्त ने ही कृष्ण को आज भी संघर्ष करने के लिए अकेला छोड़ दिया है। नतीज़तन आज भी वो अपने चाचा, चंद्र पाठक के साथ कपूरथला में एक किराए के मकान में रहने पर मजबूर हैं।

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भारत को जूनियर हॉकी विश्व चैंपियन बनाने वाली टीम के हर खिलाड़ी को पंजाब सरकार ने 25 लाख रूपये देने का किया वादा भी अन्य वादों की तरह जुमला ना साबित हो जाए। क्रिशन आज भी उन पैसों से अपने लिए मकान बनाने का सपना देख रहे हैं। इसके बावजूद निराशा उनके इर्दगिर्द भी नहीं भटक पाई है और वो अभी भी जकार्ता, इंडोनेशिया में होने वाले एशियाई खेलों की तैयारी कर रहे हैं। भारतीय खेल जगत के इतिहास में ऐसी बहुत सी सच्ची कहानियां हैं जब खिलाडियों ने अपनी निजी ज़िन्दगी की मुश्किलों को दरकिनार करते हुए खेल के मैदान पर खुद को साबित किया है।