बेबस हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
सवाल ये है इन मेडलों ने क्या दिया मुझको…
ये चंद पंक्ति उस बिहार की बेटी के दर्द को बयां कर रही हैं जिसने अपने स्टेट के लिए कभी कबड्डी में ढ़ेरों मेडल जीते थे। लेकिन जब सरकार से इनाम
लेने की बारी आई तो सौगात में बिहार सरकार ने उसे मुफ़लिसी, बेबसी और बेरोज़गारी की शॉल भेंट में दी। मेडल तो घर में धरे के धरे रह गए लेकिन पेट के लिए वो खिलाड़ी आज भी सर पर गठरी बांधें गली-मोहल्लों में आलू प्याज बेच रही है। साल 1983 में जब भारत विश्व कप जीतने के जश्न में डूबा हुआ था, उसी साल बिहार के दो खिलाड़ियों ने अपने खेल में बिहार का नाम ऊँचा किया। वो खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य रहे कीर्ति आज़ाद थे और दूसरा नाम था शांति देवी, जिसने गुवाहाटी नेशनल कबड्डी लीग में बिहार को सिल्वर मेडल जिताया। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दोनों खिलाड़ियों में कितना फर्क है। कीर्ति आज़ाद आज सांसद हैं और शांति देवी एक सब्ज़ी बेचने वाली।
यहाँ इन दोनों के खिलाड़ियों के बीच तुलना नहीं की जा रही है। ये बस एक आइना है जो भारत में महिला और पुरुष खिलाड़ियों साथ-साथ खेलों के बीच की लकीरों को दर्शाता है जिसे एसोसिएशन और कुछ राजनेताओं ने खींचा है। साल 1976 के 25वें नेशनल कबड्डी चैंपियनशिप में शांति देवी ने बिहार कबड्डी टीम की ओर से अपना पहला मैच खेला। इसके बाद लगभग दस बड़े नेशनल टूर्नामेंट में भी शांति देवी ने बिहार टीम का प्रतिनिधित्व किया। साल 1983-84 में उन्होंने बिहार कबड्डी टीम की कमान भी संभाली। अपने कबड्डी करियर में शांति देवी के लिए वो सुखद पल भी आया जब उन्होंने बिहार कबड्डी फेडरेशन चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम किया।
परिवार की है ज़िम्मेदारी
आपको बता दें शांति देवी के पति नौकरी करते हैं। परिवार में तीन बेटे हैं और एक बेटी लेकिन उनकी परवरिश के लिए इस महिला खिलाड़ी को जमशेदपुर के सोनारी एरोड्रोम मार्केट में सब्ज़ी बेचनी पड़ती है। 2004 में “द टेलीग्राफ” ने इस खिलाड़ी की स्टोरी छापी थी लेकिन उसके डेढ़ दशक बाद भी इस खिलाड़ी के हालात में कोई सुधार नहीं आया। रिपोर्ट के मुताबिक़, शांति देवी कहती है,” मुझे बहुत सारे नेता और आला अधिकारियों ने नौकरी दिलाने का वादा भी किया था। लेकिन उनके सब वादे झूठे निकले।” राज्य बदल गया, कुर्सी बदल गयी लेकिन शांति देवी की ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं आया। अब जब प्रो कबड्डी लीग ने पूरे देश में एक बार फिर से कबड्डी को लोकप्रिय कर दिया है,तो जरूरत है कि इस मिट्टी से जुड़े हर उस शख्स की मदद की जाए जो गरीबी और तंगी के हालात से जूझ रहे हैं। जिस तरह चकाचौंध और पैसे से भरी प्रो कबड्डी लीग में प्लेयर अमीर होते जा रहे हैं उससे ये हम कह सकते हैं कि काश अगर 80 के दशक में इस तरह के टूर्नामेंट होते तो शायद आज शांति देवी सब्ज़ी नहीं बेच रही होती।