वो 23 साल की अनाथ है, बड़ी मुश्किल से महज 4 शब्द ही बोल पाती है- इंडिया, गोल्ड,शालू और माँ…वो जिसने उसे जन्म तो दिया लेकिन अनजान बस्ती में छोड़कर पता नहीं कहाँ चली गयी। बचपन 223 बच्चों के बीच अनाथ-आश्रम में बीता लेकिन आज वो बेहतरीन पॉवरलिफ्टर है। शांत स्वभाव के उस मन के भीतर जिद्द का सैलाब पाले कब उम्र 23 हो गयी पता ही नहीं चला। उनकी प्रबल इच्छा है कि वो, 14 मार्च से 21 मार्च तक अबू धाबी में होने वाले विशेष ओलंपिक विश्व खेलों में भारत के लिए गोल्ड जीते। यहां बात हो रही है 23 वर्षीय दिव्यांग पॉवरलिफ्टर शालू की, जो पंजाब के अमृतसर में स्थित अखिल भारतीय पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी में पली बढ़ी हैं।
जहाँ तक शालू के मात-पिता की बात है तो वो इस दुनियां में हैं भी या नहीं, इस बात का पता आज तक नहीं चल सका है। शालू को सगी माँ से बढ़कर प्यार देनेवाली पद्मिनी (जिन्हे शालू, माँ कहती है) की माने तो 19 फ़रवरी 2000 की अल-सुबह कड़ाके की सर्द में, पंजाब के अमृतसर स्थित अखिल भारतीय पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी के दरवाज़े पर पुलिस एक बच्ची को साथ लेकर आई। 4 साल की उम्र में अनाथ होने का दर्द सीने में लिए उस नन्हीं सी जान को यह तक नहीं पता था कि कब उसके सर से उसके माँ-बाप का साया उठ गया। अब वो ऐसी दुनिया में प्रवेश लेने जा रहीं है जहाँ उसके जैसे सैकड़ों अनाथ रहते हैं। एक अनाथ जीवन का दर्द क्या होता है शायद वो बेहतर जानती थी। अक्सर इस आयु में बच्चे अपने माँ-बाप से खिलौनों के लिए जिद्द करते हैं। उस उम्र में उसकी न तो कोई पहचान थी और ना ही कोई नाम। बोलने में पूरी तरह से असक्षम वो इस बात से अनजान थी कि अब उसकी दुनिया बदलने जा रही थी।
बेटर इंडिया में छपी रिपोर्ट की माने तो पहली बार जब अखिल भारतीय पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी की स्वयंसेवक ‘पद्मिनी’ ने उस 4 साल की मासूम को देखा तो उसका दिल पसीज गया। उस बच्ची के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वो ठीक से कुछ बता नहीं पा रही थी और उसके साथ कोई भी नहीं था। पद्मिनी ने इस बच्ची की जिम्मेदारी ली। उस दिन से लेकर आज तक इस बच्ची की पूरी जिम्मेदारी पद्मिनी और इस सोसाइटी ने उठाई है।
पद्मिनी इस बाबत बताती है कि “हमने बहुत कोशिश की, कि उसके माता-पिता के बारे में कुछ पता चल सके लेकिन कुछ पता नहीं लग पाया, काफ़ी खोजबीन के बाद हमने उसे ‘शालू’ नाम दिया।” पद्मिनी आगे बताती हैं कि “शालू के साथ उन्हें काफ़ी मेहनत करनी पड़ी। शुरू में उसे संभालना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन बाद में वो सबके साथ घुलने-मिलने लगी।”
बचपन से ही शालू स्पोर्ट्स में आगे रही। हालाँकि शालू के लिए यहाँ भी कई तरह की चुनौतियाँ थीं लेकिन हर एक परेशानी से लड़कर शालू ने अपनी अलग पहचान बनाई है। जानकारी के मुताबिक शालू ने साल 2012 में पॉवरलिफ्टिंग शुरू की, लेकिन कुछ ही महीने में इस खेल के प्रति उसकी दिलचस्पी कम होती गयी। कोच के लाख समझाने के बाद भी वो नहीं मानी और उसकी दीवानगी फुटबॉल में होने लगी थी.. शालू अब फुटबॉल खेलने लगी थी। कई महीनों तक वो फुटबॉल खेलने में अपना अधिकतर समय देती थी।
सबको लगाने लगा था कि शालू फुटबॉलर बनेगी लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन मैच में उसे फ़ाउल मिला और इस पर उसे बहुत गुस्सा आया। शालू ने उसी दिन फुटबॉल छोड़ दिया और अपना गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए पॉवरलिफ्टिंग करने लगी। कोच को लगा अब जाकर वो सही ट्रैक पर लौटी है। कोच ने भी शालू के गुस्से को सही दिशा देने में देर नहीं की और शालू को इस खेल में और भी बेहतर करने के लिए प्रेरित किया। तभी से वो पॉवरलिफ्टिंग करने लगी। अब पॉवरलिफ्टिंग ही शालू की ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गया है। वो भले ही एक दिव्यांग बच्ची है लेकिन उन्होंने पिछले कई सालों में अपने खेल और एथलेटिक्स में अच्छे प्रदर्शन के चलते कई गोल्ड और सिल्वर मेडल अपने नाम किये हैं। आज वो बेहतरीन पॉवरलिफ्टर है और 14 मार्च से 21 मार्च तक अबू धाबी में होने वाले विशेष ओलंपिक विश्व खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने की तैयारी कर रही है। आज शालू की उम्र 23 साल है और अभी भी वह ढंग से नहीं बोल पाती है।
पद्मिनी का मानना है कि शालू ओलिंपिक के लिए कड़ी-मेहनत कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि वो देश के लिए गोल्ड ज़रुर जीतेगी। अब शालू भारत का प्रतिनिधित्व आगामी स्पेशल विश्व ओलिंपिक में करेगी। यह विशेष ओलिंपिक प्रोग्राम दुनियाभर के दिव्यांग खिलाड़ियों को एक साथ लाकर उनकी क्षमता और प्रतिभा को वैश्विक स्तर पर पहचान देने की कोशिश करता है।
इसे भी पढ़े :- एक हाथ के सहारे साइकिल चलाकर दिल्ली से मुंबई की 1600 किलोमीटर की दूरी तय करने वाले इस सूरमा की प्रेरणादायक कहानी